राहुल गांधी: एक राजनीतिक टूल या खोती हुई असली पहचान?

राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं होती, बल्कि यह एक विचारधारा, एक प्रतिबद्धता और एक दीर्घकालिक दृष्टिकोण का भी प्रतिबिंब होती है। भारतीय राजनीति में राहुल गांधी का व्यक्तित्व हमेशा से एक पहेली रहा है। वे एक तरफ आम जनता से जुड़ने की कोशिश करते हैं, तो दूसरी तरफ उनके प्रयास अक्सर ‘फॉल्स नेरेटिव’ की तरह प्रतीत होते हैं। धारावी की चमड़ा बस्ती में बैग सिलने की उनकी हालिया गतिविधि भी इसी सवाल को जन्म देती है—क्या यह उनकी आत्मीयता का प्रतीक है या फिर कांग्रेस का कोई नया टूलकिट प्रयोग?
राहुल गांधी का अब तक का राजनीतिक सफर अधिकतर ऐसे ही प्रतीकों और इवेंट-ड्रिवन राजनीति के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। कभी वे किसानों के खेतों में हल चलाते नजर आते हैं, कभी कुलियों के साथ बोझ उठाते हैं, कभी मैकेनिक बनते हैं, तो कभी किसी ढाबे पर रोटी बेलते हैं। यह सब एक बड़े मीडिया नैरेटिव का हिस्सा लगता है, जिसमें उन्हें एक ‘जननेता’ के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाता है। लेकिन जब जनता इस प्रयास की गहराई में उतरती है, तो उसे इसमें वास्तविकता कम और रणनीति अधिक दिखाई देती है।
राहुल गांधी का राजनीतिक द्वंद्व
राहुल गांधी के व्यक्तित्व का सबसे बड़ा संकट यह है कि उनका दिल और दिमाग राजनीति के दो अलग-अलग ध्रुवों पर हैं। उन्होंने खुद कहा है कि “राजनीति जहर है,” जिससे यह संकेत मिलता है कि यह उनका स्वाभाविक झुकाव नहीं है, बल्कि उन पर थोपी गई एक जिम्मेदारी है। इतिहास में जब हम राजीव गांधी को देखते हैं, तो वे भी अप्रत्याशित परिस्थितियों में राजनीति में आए थे, लेकिन उन्होंने जीवन को सहजता से जिया। वे विमान उड़ाने के अपने स्वाभाविक आनंद में डूबे रहते थे और राजनीति उनकी मजबूरी बनी। इसके विपरीत, राहुल गांधी राजनीति में रहते हुए भी उसमें सहज नहीं दिखाई देते।
इस असहजता का एक प्रमुख कारण उनका परिवार और कांग्रेस की रणनीति है। कांग्रेस पार्टी ने उन्हें एक ‘पोस्टर बॉय’ बनाकर प्रस्तुत किया, लेकिन उनकी आत्मिक स्वीकृति इसमें कभी नजर नहीं आई। नतीजा यह हुआ कि वे अपने व्यक्तित्व की मौलिकता खो बैठे और एक स्क्रिप्टेड नेता बनकर रह गए।
फॉल्स नेरेटिव और प्रचार की राजनीति
आज की राजनीति में ‘इवेंट पॉलिटिक्स’ का बड़ा महत्व हो गया है। राहुल गांधी के हर कदम में यह साफ दिखता है। जब वे धारावी में चमड़े की सिलाई मशीन पर बैठकर बैग सिलते हैं, तो यह देखने में एक जमीनी जुड़ाव की कोशिश लगती है। लेकिन क्या यह वाकई वास्तविकता को दर्शाता है?
चमड़ा सिलना एक परंपरागत कौशल है, जिसे वर्षों के अभ्यास और अनुभव से सीखा जाता है। अगर यह इतना ही आसान होता, तो इसकी ट्रेनिंग और विशेषज्ञता की जरूरत ही नहीं पड़ती। ऐसे में राहुल गांधी का यह प्रयास क्या वास्तव में श्रमिक वर्ग के प्रति सहानुभूति दिखाता है, या फिर यह सिर्फ एक राजनीतिक पैंतरा है?
इस सवाल का उत्तर उनके पिछले ऐसे ही प्रयासों को देखकर लगाया जा सकता है। वे जहां भी जाते हैं, वहां के मुद्दों पर शोर मचाते हैं, लेकिन ठोस समाधान पर कभी चर्चा नहीं करते। महाराष्ट्र चुनाव के समय धारावी पुनर्विकास योजना को लेकर उन्होंने अडानी ग्रुप पर आरोप लगाए थे, लेकिन अब जब सुप्रीम कोर्ट ने इस परियोजना को रोकने से इनकार कर दिया, तो उनके आरोप भी निराधार साबित हुए।
विपक्ष की भूमिका और राहुल गांधी का खोता हुआ प्रभाव
लोकतंत्र में सशक्त विपक्ष का होना जरूरी है, लेकिन अगर विपक्ष सिर्फ दिखावे की राजनीति और आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित रह जाए, तो वह अपनी भूमिका खो देता है। राहुल गांधी को लंबे समय से विपक्ष के एक मजबूत नेता के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है, लेकिन वे बार-बार खुद को अप्रासंगिक बना देते हैं।
उनकी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ हो या हाल ही में धारावी का दौरा—ये सब रणनीतिक रूप से तो महत्वपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन इनका दीर्घकालिक प्रभाव क्या होगा? क्या जनता इन्हें एक गंभीर विकल्प के रूप में देख रही है, या फिर यह सिर्फ प्रचार अभियान तक सीमित हैं?
स्वाभाविक व्यक्तित्व बनाम राजनीतिक ब्रांडिंग
राजनीति में आत्मीयता का बड़ा महत्व होता है। जब नेता अपने वास्तविक व्यक्तित्व के साथ आगे बढ़ते हैं, तो जनता उनसे सहज रूप से जुड़ती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का उदाहरण लें—उन्होंने अपनी छवि एक स्वाभाविक, मेहनती नेता की बनाई है, जो जनता के बीच से निकलकर आया है। इसके विपरीत, राहुल गांधी की छवि बनावटी लगती है, क्योंकि उनकी हर गतिविधि में एक पूर्वनियोजित प्रचार रणनीति नजर आती है।
राहुल गांधी का संघर्ष सिर्फ विपक्ष के साथ नहीं है, बल्कि खुद अपनी पहचान को लेकर भी है। वे क्या बनना चाहते हैं—एक सशक्त नेता या एक इवेंट-ड्रिवन पॉलिटिशियन? जब तक वे इस सवाल का स्पष्ट उत्तर नहीं देते, तब तक उनकी राजनीति भटकती ही रहेगी।
निष्कर्ष
राहुल गांधी की राजनीति एक जटिल विरोधाभास बन गई है। वे जिस राजनीति को जहर कहते हैं, उसी के प्रचार के लिए वे हर महीने नया नाटक करते हैं। उनका धारावी में बैग सिलना एक सामान्य व्यक्ति के लिए शायद एक दिलचस्प घटना हो सकती है, लेकिन जब इसे राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है, तो यह एक सोचे-समझे प्रचार अभियान का हिस्सा लगता है।
राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण होता है आत्मस्वीकृति और स्वाभाविक नेतृत्व। राहुल गांधी जब तक अपनी वास्तविक पहचान को स्वीकार नहीं करते और राजनीति को सिर्फ एक पारिवारिक विरासत की मजबूरी के बजाय एक सेवा के रूप में नहीं देखते, तब तक उनकी यात्रा असली जननेता बनने की बजाय सिर्फ एक ‘पॉलिटिकल टूल’ बनने तक सीमित रहेगी।